Monday, 10 January 2022

S Y B A Paper II कहानिया समीक्षा - व्यंग्य – वीथी-

व्यंग्य – वीथी-

प्र.१  वसीयत कहानी का सारांश लिखिए :-

           वसीयतकहानी भगवती चरण वर्माद्वारा लिखित पारिवारिक ताने-बाने पर आधारित एक कहानी है। जिसमें कहानी के मुख्य पात्र पंडित चूड़ामणि मिश्र अपने बच्चों द्वारा उपेक्षित व्यक्ति हैं। इनके दो बेटे और तीन बेटियां हैं, लेकिन सब उनकी उपेक्षा करते हैं और उनसे अलग रहते हैं। यहाँ तक कि उनकी पत्नी भी उनसे अलग रहती हैं। एक लंबी बीमारी के बाद जब उनका देहांत होता है तो वे अपने बच्चों और पत्नी आदि के नाम जैसी वसीयत करके जाते हैं, यह कहानी उसी विषय पर आधारित है।

                    आचार्य चूड़ामणि मिश्र के दो बेटे लालमणि और नीलमणि हैं। जिनके नाम वह वसीयत में अपनी संपत्ति का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा कर जाते हैं। वे अपनी बेटियों तथा पत्नी को भी संपत्ति का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा देकर जाते हैं। यह कहानी संपत्ति के लोभी संबंधियों की मनोदशा दर्शाती है जो संपत्ति के लोभ में रिश्ते नातों की मर्यादा तक भूल जाते हैं। यह कहानी पिता-पुत्र, पति-पत्नी के बीच के संबंधों के बीच,आज की भागती दौड़ती जिंदगी और संपत्ति के लोभ के कारण उत्पन्न हुई दरार को दर्शाती है।

         वसीयतकहानी भगवती चरण वर्मा द्वारा लिखित एक ऐसी सामाजिक ताने-बाने की कहानी है, जो लोभी प्रवृत्ति के संबंधियों की मानसिकता पर केंद्रित है। ये कहानी मुख्य पात्र पंडित चूड़ामणि मिश्र के द्वारा की गई वसीयत पर आधारित है, तथा ऐसे पुत्र-पुत्री जिन्होंने अपने पिता का जीते जी कभी ध्यान नही रखा तथा एक ऐसी पत्नी जिसने अपने पति की जीते जी कोई सम्मान नहीं किया, की लोभी प्रवृत्ति पर प्रकाश डालती है। जब चूड़ामणि मिश्र मरने के उपरांत उनके नाम अपनी संपत्ति का हिस्सा छोड़ जाते है तो वह उस पिता का गुणगान गाने लगते हैं। पहले जिस पिता को अपशब्द बोल रहे थे, धन के मिलते ही वह अपने पिता के प्रतिसंवेदना का सामाजिक दिखावा करते हैं। ऐसा ही दिखावा पंडित चूड़ामणि मिश्र की पत्नी और बहुएं तथा भतीजे आदि भी करते हैं।  

         यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है जहाँ रिश्तो में आत्मीयता का अभाव हो गया है और केवल वे अपने स्वार्थ पूर्ति के साधन बनकर रह गए हैं। पति-पत्नी और पिता-पुत्र-पुत्री जैसे प्रगाढ़ संबंध भी स्वार्थ की डोर से बंधकर रह गये हैं।

          कहानी के मुख्य पात्र पंडित चूड़ामणि मिश्र भी ऐसे ही स्वार्थी संबंधों के भुक्त-भोगी हैं, जो कि उनकी मृत्यु के उपरांत भी कायम रहता है। यही समस्या समाज की सबसे गहरी समस्या है। 

प्र.२  “सुदामा के चावल” इस कहानी द्वारा व्यवस्था में अंतर्निहित भ्रष्टाचार को लिखिए |

सुदामा के चावल’ कहानी व्यवस्था में अंतर्निहित भ्रष्टाचार के घुन की पड़ताल करती हुई कथा है। कृष्ण के बाल सखा सुदामा के कथित संस्मरण के माध्यम से व्यवस्था और समकालीन राजनीति के विविध पक्ष उद्घाटित होते हैं। कृष्ण द्वारा दो लोक देने और सुदामा द्वारा वापस लौटाने की कथा लोगों में चर्चा का विषय बन गई है। सब उसे मूर्ख मान रहें हैं। सुदामा का सत्य वहीं जानता है। द्वारिका जाते समय उसकी पत्नी ने दो मुट्ठी चावल पड़ोसियों से उधार लेकर उसके गमछे में बांध दिये थे कि राजपुरुष बिना भेंट किसी का कोई काम नहीं करते। दूसरा चोरी और उधारी के माल से वे बड़े प्रसन्न होते हैं। कृष्ण चावल पाने को आतुर हैं। आस-पास खड़े चित्रकार भी उस दिव्य अवसर को चित्रबद्ध करने को तत्पर हैं। चावल ना पाकर कृष्ण रुष्ट हैं। सत्य जानना चाहते हैं। आश्वासन पाकर सुदामा सत्य बताता है। चावल उसके सुरक्षा अधिकारी खा गए। कृष्ण के राज्य में भ्रष्टाचार का चलन है। कृष्ण इस रहस्य को जानकार बड़ी दुखी होते हैं। सुदामा से अपने मन की बात बताते हैं। जब से वो राजा बने हैं कितने ही लोग संबंधी बन कर आए हैं। वह सुदामा से इस बात को बाहर ना बताने का वचन लेते हैं और उसके बदले एक लाख स्वर्ण मुद्राएँएक मकान और एक ग्राम देते हैं। इस कथा के माध्यम से शासन व्यवस्था के भ्रष्टाचार पर व्यंग्य किया गया है। ‘लंका-विजय के बाद’ संग्रह की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कहानी है। इस कहानी के माध्यम से परसाई जी ने लंका विजय के बाद की स्थितियों में वानरों के अयोध्या में उत्पात और राज पदों की लालसा को प्रस्तुत किया है। परसाई जी ने ऋषि भारद्वाज की जिज्ञासा पर ऋषि याज्ञवल्क्य के माध्यम से ये कथा प्रस्तुत की है। इसे एक वर्जित प्रसंग मानते हुए सुनने के बाद तीन दिन का मौन धारण किया। परसाई जी ने इस कथा के माध्यम से उन धूर्त लोगों पर व्यंग्य किया है जो सत्ता की मलाई खाने के लिए झूठे घाव दिखाते हैं। बहुत से तो ऐसे हैं जिन्होंने युद्ध में भाग ही नहीं लिया लेकिन पद प्राप्ति के लिए वे अपने शरीर पर झूठे घाव बना रहे हैं। स्वतन्त्रता के बाद सत्ता में भागीदारी के लिए ऐसे ही अवसरवादी लोग अपने हित साधने में संलग्न रहते हैं। 

प्र.३ वाह रे ! हमदर्द’ निबंध का व्यंग्य स्पष्ट कीजिए |

                   आधुनिक युग के लोकप्रिय रचनाकार के रूप में घनश्याम अग्रवाल जी को माना जाता है | उन्होंने वाह रे! हमदर्द इस व्यंग्य निबंध के द्वारा आधुनिक युग के लोगों की मानसिकता को चित्रित किया है | जिसमें किसी दुर्घटना के समय बहुत सारे लोग अस्पताल में मरीज को मिलने जाते है | उसमें अधिक तर लोग केवल औपचारिकता दिखने के लिए आते है | इसे व्यंग्य के द्वारा लेखक ने चित्रित किया है |

         अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती हुए मरीज को देखने जाने की परंपरा समाज में पुरानी है। इससे मरीज को खुशी होती है और कुछ समय के लिए उसका ध्यान अपने कष्ट से हट जाता है। पर कुछ मिलने वाले ऐसे होते हैं,जो मरीज के लिए परेशानी का कारण बन जाते हैं। प्रस्तुत हास्य-व्यंग्यात्मक निबंध में लेखक ने दुर्घटना के माध्यम से एक ऐसी ही स्थिति का चित्रण किया है। निबंध में जहाँ एक ओर समाज में विद्यमान परोपकार की भावना पर प्रकाश डाला गया है, वहीं दूसरी ओर बड़े ही रोचक ढंग से हमदर्द लोगों की मानसिकता को भी चित्रित किया गया है। कभी-कभी हमदर्दी भी रोगी की मानसिक पीड़ा का कारण बन जाती है।

       प्राय: सभी को कभी-न-कभी मरीजों से मिलने अस्पताल में जाना पड़ता है। मरीज से मिलने जाते समय कुछ सावधानियाँ बरतना अत्यंत आवश्यक है। मरीज से मिलने जाते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारी वजह से उसे कोई कष्ट न पहुँचे। बच्चे चुलबुले होते हैं। इसलिए मरीज के पास बच्चों को नहीं लेकर जाना चाहिए। बीमारी में दवा और पथ्य के साथ मरीज को आराम व अच्छी नींद आवश्यक है।

         अत: मरीज के पास ज्यादा देर तक बैठना, जोर-जोर से बोलना, मरीज की बीमारी के बारे में नकारात्मक बातें करना आदि उचित नहीं है। जहाँ तक हो सके, मरीज का उत्साह बढ़ाना चाहिए। अस्पताल में डॉक्टर मरीज को उसकी आवश्यकता के अनुसार दवाएँ देते हैं। इसलिए मरीज से देसी नुस्खे आजमाने की बातें नहीं करनी चाहिए और न ही डॉक्टर की दवा के बारे में रोगी के मन में किसी तरह का भ्रम पैदा करना चाहिए।

          इस प्रकार से लेखक ने अस्पताल में मरीज को देखने जाने वाले लोगों को प्रस्तुत व्यंग्य निबंध के द्वारा कहा है |

‘शकुंतीका’ उपन्यास-

प्र. १ ‘शकुंतीका’ उपन्यास में चित्रित नारी विमर्श को लिखिए |

               ‘शकुंतिका’ आकार में अत्यंत छोटा उपन्यास है जिसे उपन्यासिका भी कहा जा सकता है. घर में पुत्र-पुत्री के जन्म और महत्व को लेकर इसका कथ्य स्पष्ट है. इसी प्रसंग में जो पितृसत्तात्मक धारणाएं समाज की गहराई तक अपनी जड़ें जमा चुकी है उसपर भी उपन्यासकार ने यथास्थान कटाक्ष किये है. शकुंतिका की कथावस्तु इसके दो मुख्य स्त्री चरित्र भगवती और दुर्गा के आसपास ही बुनी गयी है.  यह दो महिलायें भारत की उन करोड़ों महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है जो यह मानती है कि बेटा ही कुल का दीपक होता है और बिना पुत्र के वंश नष्ट हो जाता है. यह अत्यंत भीषण वास्तव है. शिक्षित-अशिक्षित,शहरी-ग्रामीण सभी तरह के लोग और परिवार इस भीषण चिंता और भय से पीड़ित है और आज भी इस क्रूर मान्यता के कारण न जाने कितनी ही कन्याओं के भ्रूण गर्भ में मार दिए जाते है. पुत्र के अभाव से सामाजिक एवं पारिवारिक असुरक्षा का जो भय परिवारों में व्याप्त होता है वह अत्यंत भीषण है. उपन्यास का प्रारंभ इसी चिंता से होता है. जब दुर्गा अपने घर चौथे पोते के जन्म की ख़ुशी एवं उल्लास में लड्डू देने आती है तो भगवती को आश्वस्त करते हुए कहती है, “मुझे पक्का यकीन है कि इस बार तुम्हारे घर लडके की ही किलकारियां गूंजेंगी”. 

               तब भगवती उसे कहती है, “अगर इस बार भी नहीं हुआ न,हम तो जीते-जी मर जायेंगे. पहले से दो-दो लड़कियों को देखकर मेरे तो हाथ-पाँव फुले जाते हैं. ” यह भगवती की ही नहीं,ऐसी कई महिलाओं की स्थिति और सोच है.  यह रोंगटे खड़े करनेवाली सामाजिक मानसिकता है. भगवती और दुर्गा एकदूसरे की पड़ोसन है. दोनों के दो-दो पुत्र है और अब इन महिलाओं की यह अपेक्षा है कि उनके घर पोतों का ही जन्म हो.  दुर्गा इस सन्दर्भ में अत्यंत भाग्यशाली है कि उसके बड़े पुत्र नागदत्त और छोटे पुत्र अभय को दो-दो पुत्र है. परंतु भगवती इतनी भाग्यशाली नहीं है. भगवती के बड़े पुत्र बलवंत को पहले से ही सिया और गार्गी दो बेटियां है और बलवंत की पत्नी फिर से गर्भवती है.  दूसरे पुत्र रुपेश को अभी तक कोई संतान नहीं है. स्वाभाविक है कि भगवती चाहती है उसके परिवार में पुत्र का ही जन्म हो. ऐसी अपेक्षा करने में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है. परंतु समस्या तब पैदा होती है जब बलवंत की तीसरी संतान भी बेटी ही पैदा होती है. भगवती अत्यंत निराश हो जाती है. उसे यह भय खाने लगता है कि आगे उसके बेटे और वंश का क्या होगा? उसके घर में मातम छा जाता है. 

         इस समस्या का समाधान किसी के भी पास नहीं है कि उसके वंश की रक्षा कैसे की जाए?आदर्श एवं महान विचारों के द्वारा ब्रेन वाश में इसका हल है क्या?यह चुनौती भी है और विडम्बना भी. यह समस्या थी, है और रहेगी. परंतु एक बड़ी हद तक उपन्यासकार ने इस नाजुक एवं गंभीर मामले को अपने स्तर पर बड़ी ही सूझ-बुझ,समझदारी,विवेक और उदार आधुनिक दृष्टिकोण से सुलझाने का प्रयास किया है जो अत्यंत सराहनीय है. दुर्गा और भगवती इस उपन्यास के केंद्रीय पात्र  है. चिंतनीय यह है कि यह दोनों ज्येष्ठ महिलायें इस तथाकथित पारंपरिक सोच की वाहक है और पितृसत्तात्मक सोच की समर्थक भी. चुनौती यह भी है कि समाज की गहराई तक जड़ जमा चुकी इस धारणा या मानसिकता को गलत या मिथ्या कैसे ठहराया जा सके? इसी समस्या के समाधान में उपन्यास में कुछ घटनाएं अत्यंत तेजी के साथ घटित होती चलती हैं.

प्र.२  शकुंतीका’ उपन्यास में चित्रित सामाजिक समस्याओं का वर्णन कीजिए |

         उपन्यासकार आगे बढकर कथा को एक नया आयाम देते है और इस यथार्थ से भी अवगत कराते है कि बेटों में माता-पिता की संपत्ति में अपने अधिकार प्राप्ति की हेतु से प्रायः टकराव उत्पन्न होता है. यह टकराव संयुक्त परिवारों के बिखरने का मूल कारण है. कुल –दीपकों से भरा हुआ उग्रसेन और दुर्गा का घर टूट जाता है. उनके दोनों बेटें अपने परिवार के साथ स्वतंत्र गृहस्थी बना लेते है और अलग-अलग रहने लगते है. बल्कि भगवती और दशरथ का घर टूटने  से बचता है.  धीरे-धीरे अपने पोतों से उदासीन होती गयी दुर्गा घर में बेटियों की उपस्थिति के महत्व को समझने लगती है.

              लेखक ने वस्तुतः यह संकेत किया है कि वास्तविक सुख या दुःख बेटे-बेटियों के जन्म में नहीं है बल्कि उनकी परिवार के प्रति निष्ठा और परस्पर प्रेम में है. जीवन की उपलब्धियों में नहीं है. उग्रसेन के दोनों बेटों ने धन तो बहुत कमाया पर अपने बच्चों की सही देखभाल करने में असफल रहे. इधर भगवती घर में धन की कमी तो है,पौत्र-सुख भी नहीं है. पर अपने तीनों पोतियों सिया,गार्गी और बुलबुल को उचित और उच्च शिक्षा देने में सफल तो है परंतु उन्हें कुलीन और संस्कारी बनाने में भी सफल हो गए है. कवि बच्चन जी ने कहा भी है,-“पूत सपूत तो क्या धन संचय? पूत कपूत तो क्या धन संचय?”

                जिन रत्नों पर दुर्गा और उग्रसेन को बड़ा गर्व था वे तो मामूली पत्थर साबित हो गए.महंगे निजी स्कूलों में पढ़ाने का भी कोई लाभ नहीं हुआ. उपन्यास में प्रस्तुत यह तीसरा प्रसंग उपन्यासकार ने समाज का जो सूक्ष्म निरिक्षण किया उसका बेजोड़ प्रमाण है. सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने के प्रति धनिक या उच्च मध्यवर्ग की उदासीनता और निजी स्कूलों के प्रति मोह और आकर्षण भी एक भयंकर समस्या है. इसका नकारात्मक परिणाम उग्रसेन को मिलता है. बल्कि सरकारी साधारण स्कूलों में पढ़ी सिया और गार्गी वकील और डॉक्टर बनती है. लेखक ने उपन्यास में इस धारणा को भी ध्वस्त कर दिया कि निजी स्कूल डॉक्टर-इंजीनियर होने की गैरंटी है. यह उपन्यास की बहुत बड़ी उपलब्धि है जो जेंडर डीस्क्रिमिनेशन की मुख्य विषयवस्तु को एक नया आयाम देती है.    

                  बेटा-बेटी में अंतर करनेवाली मानसिकता पर उपन्यासकार द्वारा आखरी चोट तब की जाती है जब भगवती के दूसरे नि:संतान बेटे रुपेश के लिए कोई बच्चा गोद लेने के समय यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया जाता है कि गोद भी लड़की ही ली जायेगी,लड़का नहीं. यह काफी साहस भरा और क्रांतिकारी निर्णय कहा जा सकता है. यह उपन्यास की दुर्गा-भगवती कथा का चरमोत्कर्ष है. यह उपन्यास में कुछ लंबा चलनेवाला प्रसंग है. अनेक तरह की आशंकाएं,असमंजस,अंतर्द्वंद्व,भय और उहापोह के बाद लड़की गोद लेने का यह ठोस और कडा निर्णय लिया जाता है.  भगवती बताती है कि इस निर्णय के पीछे दुर्गा है. दुर्गा ने उसे इसके लिए प्रेरित किया और कहा,--“सुन भगवती,बूरा मत मानियो. इस वंश बढाने की भूख ने हमारे बेटियों की दुर्गत कर दी है. थोड़ी देर के लिए मान लो कि तुमने लड़के को गोद लिया तो इसकी क्या गैरंटी है कि वह तेरी इन पोतियों को बहन का दर्जा देगा ही. कहीं ऐसा न हो कि वह सारी जायदाद पर कब्जा कर बैठे और तेरी यह पोतियाँ यहाँ के रुखों के लिए भी तरस जाए. ”

भगवानदास मोरवाल ने शकुंतिका के माध्यम से सर्वप्रथम इस विषय को अत्यंत रोचक शैली में प्रस्तुत किया. अपने उपन्यासों में मोरवाल जी ने प्रायः नए-नए विषयों पर लेखनी केंद्रित की है. कई बार वे कानूनी विवादों में भी फंसे और ससम्मान उनसे मुक्त भी हुए.भारतीय स्त्री और उसके जीवन की समस्त विडम्बनाओं और संभावनाओं को उन्होंने जिस तरह अपने कथा लेखन के केंद्र में रखा है वह उनके कथा साहित्य का सर्वाधिक उल्लेखनीय एवं दमदार पक्ष है.

प्र.३  शकुंतीका’ उपन्यास में का प्रधान संदेश लिखिए |

        वस्तुतः ‘शकुंतिका’ का कथ्य स्त्रियों के जन्माधिकार और जीवन स्वतंत्रता का कथ्य है.  स्त्रियोचित मान-सम्मान और अधिकारों की प्राप्ति की यह कथा है.  यह पुरुषों के अधिकारों की बराबरी या उन्हें  छिनने की कथा नहीं है और न ही पुरुषों की नकारात्मक छवि को पेश करना लेखक का उद्देश्य है. स्त्री-पुरुष स्वतंत्रता की परिभाषा को कुछ विशेष मुद्दों पर तो लचीला बनाना ही होगा. अब हम उन नियमों पर चल नहीं सकते जो हजारों वर्ष पूर्व बनाए गए है. हमें युगानुकुल रास्तों को खोजना ही होगा. स्त्रियाँ जन्म से लेकर जिस भेदभाव एवं शोषण का शिकार बनती रही है उससे मुक्त होने का एकमात्र उपाय है स्त्रियों का शिक्षित, उच्चशिक्षित एवं आत्मनिर्भर होना. अपने जीवन के स्वतंत्र फैसले लेने में सक्षम होना. ऐसा लेखक मानते है. लेखक ने इस प्रसंग में अंतरजातीय विवाह की उपयोगिता एवं सार्थकता पर भी विचार किया है. सिया के लॉ करने पर यह चिंता स्वाभाविक ही है कि उसे अपनी बिरादरी में अपने स्तर का लड़का कैसे मिलेगा?यदि वह जज की परीक्षा पास हो जाती है तो यह समस्या अधिक गंभीर बन जायेगी.  भगवती और दशरथ तो यहाँ तक सोचते हैं कि सिया यह परीक्षा पास ही ना हो और आगे गार्गी भी तो है जो एम्. बी. बी. एस. कर रही है. 

               यह एक भयंकर चिंता है और उपन्यासकार इसका हल अंतरजातीय विवाह में तलाश चुके है. परंतु इस तरह समस्या का तात्कालिक समाधान प्रस्तुत करने में यह समस्या समाप्त नहीं होती बल्कि कई अधिक प्रश्नों को उपस्थित करती है. फिर भले ही मात्र भगवती के परिवार की मूल समस्या सुलझ चुकी हो. हमारे देश में स्वतंत्रता के पूर्व से ही इसी तरह के कुछ रास्तें भेदभाव एवं शोषण की समस्याओं को ख़त्म करने के बारे में सोचे और अपनाए गए. पर इन सत्तर वर्षों में यह स्थितियां जस के तस है. वास्तव में यह सतही उपाय है. आर्थिक स्तर सामाजिक स्तर को उठाने में सफल नहीं हुआ है. लड़की के उच्चशिक्षित होने पर लड़की और उसके परिवारवालों में कुछ विशिष्ट बन जाने का बोध और अहम आजकल आम बात हो गयी है.

                  इसी श्रेष्ठताबोध के कारण कई बेटियाँ अनब्याही रह जाती है. भगवती का परिवार अब सब कुछ अपने जीवन-आदर्शों एवं अनुकूलताओं  के अनुरूप चाहने लगा है. उसकी यह मानसिकता किन परिस्थितियों के कारण बनी उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता. उपन्यासकार ने उच्चशिक्षित बेटियों के विवाह की समस्या को लेकर उसपर अंतरजातीय विवाह का रास्ता खोज लिया है. वस्तुतः अंतरजातीय विवाह के फैसलें जिन परिवारों में प्रसन्नता से लिए जाते हैं.  वे प्रायः व्यवहारिक हितों को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं. शिक्षा,नौकरी ,पैसा,रहन-सहन की बराबरी को इसमें अधिक महत्व दिया जाता हैं. अब यदि भगवती की पोतियाँ गली या मोहल्ले के किसी आवारा लडके या यूँ कहे दुर्गा के पोते से ही प्रेम कर बैठती तो इन दोनों परिवारों में क्या निर्णय होता? तब क्या दुर्गा भगवती को वही सलाह दे पाती जो उसने दी और भगवती ने मानी. ध्यान देने की बात है कि सिया और गार्गी ने अपने प्रेम के आलंबन रूप में उसी व्यक्ति को चुना जो व्यावहारिक स्तर पर उनके लिए फिट है.

प्र . निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक - एक वाक्य में लिखिए |

१ चुडामनी ने वसीयत में अपनी पत्नी के लिए कितने रुपये रखे थे |

      - दो लाख
२. सुदामा कृष्ण से मिलने कहाँ गया था |

   -   द्वारिका

३. सुदामा की पत्नी ने चावल का इंतजाम कहाँ से किया था |

   -   पड़ोसन से

      गांधी जी की बकरी कहाँ बांधी गई थी |

   -स्वराज के पैताने     

५.   नेहरू  गांधी जी का चश्मा किस मंत्रालय को देना चाहते थे |

   -  केन्द्रीय मंत्रालय

६.   शाहजहाँ अपनी राजगद्दी किसे देना चाहता है |

-   दारा  

७.   भगवती किसे अपना संकटमोचक मानती है |

-    दुर्गा को

८.   सिया आगे चलकर क्या बनती है |

-   वकील

९.   अपने दादाजी के अंतिम दर्शन कौन नहीं कर पाती |

    -   पीहू

१०.        दुर्गा भगवती को कहाँ से बच्चा गोद लेने की सलाह देती है |

   -  अनाथाश्रम से

११.        उग्रसेन कौन- सा व्यवसाय करते थे |

-   दूध सप्लाय का

१२.        शकुंतिका  उपन्यास के रचनाकार कौन है |

-   भगवानदास मोरवाल

१३.        पढ़ाई के लिए पीहू कौन से देश चली जाती है |

  -  ऑस्ट्रेलिया


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